दो प्रकार की साधनाएँ

इस दुनियां में दो प्रकार की साधनाएँ है.

स्वशक्ति साधना

परशक्ति साधना

स्वशक्ति साधना

स्वशक्ति साधना में साधक खुद की शक्ति से खुद को जानने की चेष्टा करता है. अपने मन को विकसित करता है. अपनी बुद्धि को विकसित करता है. विभिन्न प्रकार के साधन अपनाता है. साधक का मुख्य उदेश्य केवल अपनी चेतना को विकसित कर उस विकसित चेतना को ब्रह्मा में लय करना होता है.

मुख्यतया मन को रोकने पर कार्य किया जाता है. चित की वृतियों का निरोध किया जाता है जैसा की महर्षि पतंजलि ने समझाया है. जैसे जैसे साधक थोड़ा सा कामयाब होता है उसका बल भी बढ़ता चला जाता है. इसमें साधक को नए नए और अनूठे अनुभव भी होने लगते है. कर्मयोग, ध्यान योग इस साधना का मुख्य साधन है.

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इसमें गुरु का होना अवश्य होता है. क्यूंकि इस मार्ग में तरह तरह की समस्याएं भी आने लगती है जिनका निवारण आत्म जाग्रत गुरु ही कर सकते है.

परशक्ति साधना

इस साधना में भक्ति मुख्य है. आत्मसमर्पण मुख्य है. इस मार्ग में गुरु एक ही होता है. सबका गुरु एक ही होता है. वो होते है स्वयं ईश्वर. एक ही परमात्मा हर किसी का गुरु होता है. इस साधना में आपका खुद का कोई साधन नहीं होता. एक ही साधन होता है भक्ति. हरपल उसकी याद में. निरंतर चिंतन. बिना एक पल गवाएं एक ही ईश्वर का ध्यान. जैसा परमात्मा रखे वैसा ही रहना. न कोई शिकायत न कोई शिकवा. बस केवल और केवल उसका ध्यान. इस में खुद शक्ति नहीं बल्कि उसकी इच्छा पर निर्भर रहना होता है.

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